कोचिंग के धंधे ने शिक्षा और ज्ञान को बना दिया है बाज़ारु
धंधा और गंदा है ये। कोचिंग सेन्टर वाकई पढ़ाई ही करवाते हैं? कोचिंग सेन्टर में बच्चा नहीं। पढ़ेगा, तो क्या उसका जीवन व्यर्थ हो जाएगा? एक जमाना था कि यदि बच्चें को ट्यूशन पढ़ने जानी पड़ती थी तो शर्म की बात होती थी। परिवार, समाज में लेवल में लेबल लग जाता था कि बच्चा कमजोर ही होगा जो अलग से ट्यूशन लगवानी पड़ी। ग्रुप-ग्रुप कर ट्यूशन वाले टीचर घर आते थे (यदि आप धनाध्य हुए तो… और यदि आप बहुत अमीर न हों तो, पास में ही कोई टीचर तलाशा जाता, जो बच्चे को पढ़ाई करवाता था। जो माता पिता से संभव न हो पाता था वो टीचर के माध्यम से पढ़ाने की व्यवस्था की जाती थी परन्तु अमूमन बच्चे स्कूल में ही पढ़ते थे। वहीं के अध्यापक इतनी पढ़ाई करवा देते थे कि कोई भी परीक्षा पास करवा देते थे। न पढ़ाई कर पाए तो स्कूल में ही एक्स्ट्रा क्लास लग जाती थी। वे भी होनहार बच्चा देख मेहनत करवाते थे। बच्चे भी टीचर जी की लगन देख, उसे अपना गुरु मान लेते थे। माता-पिता भी उस गुरु-शिष्य के बीच में नहीं आते थे, बल्कि प्रसन्न हो जाते थे कि बच्चें को सही गाइडेंस मिल रही है, बच्चे की जिंदगी सुधर जाएगी।
किसने विद्या को धंधा बना दिया? कब हुआ ये? विद्या बिक रही है, क्योंकि माता-पिता खरीददार चन गए हैं। डॉक्टरी सेवा नहीं धंधा है, पैसे कमाने का जरिया है। आईआईटी सिर्फ आईआईटी नहीं, विदेशी नौकरी का पासपोर्ट है फिर दूरगामी दहेज का भी टिकट है। शादी में लड़के की बोली बढ़ जाती है। आईएएस और आईपीएस की तो बात ही क्या है।
माता-पिता अपनी अधूरी आकांक्षाओं को पूरा करने का, समाज में स्वयं और बच्चों को स्थापित करने का और एक अजीबोगरीब रेस का घोड़ा अपने बच्चों को बना देते हैं। बच्चों को तो पता भी नहीं चलता बो कोल्हू की बैल की तरह कब जोत दिए गए हैं, उनकी महत्वाकांक्षा नहीं थी इतनी विराट। होती तो कहीं भी पढ़ जाते।
लालटेन की रोशनी ने, स्ट्रीट लाइट के बल्ब ने, टाट पट्टी के स्कूल ने भी महान वैज्ञानिक इस देश को दिए हैं। जिन्हें पढ़ना है, उनकी ज्ञान की भूख उन्हें आगे ले जाती है। सीखने की ललक रात को सोने नहीं देती है। कुछ कर गुजारने की तड़प उन्हें दिन-रात की पहचान खो देती है। कोचिंग, इंस्टिट्यूट कहते हैं हम आपको एक्जाम क्रैक करना सिखा देंगे। कैक करना? इसमें शिक्षा और ज्ञान शायद दोनों ही शब्द विलुप्त हैं। कोचिंग के इस धंधे ने शिक्षा और ज्ञान को बाजारु बना दिया है। बीच चौराहे पर शिक्षा अपनी लाज बचाने के लिए द्रोपदी की तरह खाड़ी है, पर
बाजारवाद के ये दरिंदे उसकी साड़ी खींचे ही चले जा रहे हैं। जुलाई 2024 की एक रिपोर्ट कहती है कि आज देश भर में लगभग 68,118 कोचिंग सेंटर्स है। आज यह इंडस्ट्री (कृपया इस शब्द पर गौर किया जाए) 58,000 करोड़ की हो चुकी है और जिस रफ्तार से बढ़ रही है, 2028 तक ये 15 फीसदी ग्रोथ के हिसाब से 1.33 लाख करोड़ की हो जाएगी। स्टिर्फ कोटा में ही तकरीबन 2 लाख चच्चा पढ़ने आते हैं और लगभग 30-40 फीसदी बच्चे ही पास होते हैं, शेष अपने टूटे सपने, टूटी आस, टूटा आत्मसम्मान लिए वापस आ जाते हैं, कुछ आत्महत्या कर लेते हैं। वे माता-पिता कौन हैं जो जानते-बूझते हुए अपने बच्चे को इस भट्टी में झोंक देते हैं? बच्चों का डाटा लीक होना, एक बहुत बड़ा धंधा है। इस पर कितना पैसा खर्च होता है किसी को पता नहीं। ये डाटा शायद स्कूल्स से बेचा जाता है, क्योंकि बच्चे अभी कक्षा 11वीं में ही होते हैं कि माता- पिता को फोन पर जानकारी आनी शुरू हो जाती है। बेचारे माता-पिता को पता ही नहीं कि उनकी जानकारी एक अलग ग्रुप को बेच दी गई है। यह डाटा का धंधा अलन जमतारा’ को जन्म दे रहा है। फिर माता-पिता को लुभावने सपने दिखाए जाते हैं और माता-पिता पैसा जुटाने में लग जाते है। अपने सेंटर का रिजल्ट बढ़ाने के लिए, हमारे यहां से इस बार इतने बच्चें पास हुए। सफलता की कुंजी, फलाँ फलों। सेंटर आईए और सेंटर से बच्चें को एक्जाम क्रैक करवाने की गारंटी दे दी जाती है। समाचार पत्रों के प्रमुख पृष्ठ पर कोचिंग सेन्टर का फुल पेज विज्ञापन छपता है, पी है. भविष्य में, माता-पिता को आकर्षित करने के लिए। पेपर लीक होते हैं, बच्चों के लिए नहीं, माता-पिता के लिए। या यूँ कहे अति महत्वाकांक्षी माता-पिता के लिए जिनों अपने बच्चों को भविष्य का मोहरा बनाना है। कौन देता है, एक पेपर लीक होने के लाखों-लाखों रुपए? क्या ये पैसा बच्चें दे रहे हैं, माता-पिता दे रहे हैं? क्या ये भ्रष्टाचार का एक अदद नमुना नहीं है? महत्वाकांक्षी माता-पिता को कमाना है क्योंकि बच्चे की शिक्षा नहीं बल्कि कोचिंग की फीस, होस्टल की फीस, रहने खाने-पीने का खर्चा देना है। एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार क्या ये सब खर्चा अफोर्ड कर सकता है ? पर सपने तो देख सकता है न। बच्चें को दाँव पर लगाना, उसके भविष्य को सुनहरा बनाने का एक आसान रास्ता दिखाई पड़ता है उन्हें और फिर बो पिता लग जाता है, समेटने में, जहाँ से जैसे भी। फिर यह कोचिंग सेंटर आता है, उन्हें थैली भर के रुपए देता है। यह इंडस्ट्री यूँ ही नहीं फल-फूल रही। शिक्षा मटमैली हो चली है। जहाँ मूल्यों की गिरावट हो जाती है, उस समाज का पतन निश्किा हो जाता है। गुरु का सम्मान हम भूल गए हैं। ‘पैसा’ ‘पैसा’ और ‘पैसा’ आज का भगवान है। उसे ही प्रणाम है। किसी विशाल कोचिंग, इंडस्ट्री का एक छोटा सा, अदना सा हिस्सा नहीं बनेगा, तो क्या ये कोचिंग सेन्टर वाले सीधे नहीं हो जाएँगे। चच्च्चों से उनका बचपन मत छोनिए। इन कोचिंग सेंटर के आसपास की अंधियारी गलियों में क्या कुछ नहीं पनपता। इस पर विच्चार करिए।